सपने देखते नहीं बुनते थे डॉ. वाईएस परमार , तभी बना वृहद हिमाचल

सपने देखते नहीं बुनते थे डॉ. वाईएस परमार , तभी बना वृहद हिमाचल

गोपाल दत शर्मा - राजगढ 03-08-2021

हर वर्ष चार अगस्त को हम हिमाचल निर्माता डॉक्टर वाईएस परमार की जयंती मनाते है। डॉक्टर यशवंत सिंह परमार अपने आप में युग पुरुष थे , जिसने पहाड़ो की भोली-भाली, कम साक्षर व भौगोलिक परिस्थितियों से जूझ रही जनता को विकास के सपने दिखाए नहीं, बल्कि उनका पूरा ताना-बाना बुन कर भविष्य की राह पर अग्रसर भी किया। वह हिमाचल निर्माता डॉ. यशवंत सिंह परमार ही थे, जिन्होने एलएलबी व पीएचडी होने के बावजूद धन-दौलत या उच्च पदो का लोभ नही किया, बल्कि सर्वस्व प्रदेशवासियों को पहाड़ी होने का गौरव दिलाने में न्यौछावर कर दिया। परमार हिमाचल की राजनीति के पुरोधा व प्रथम मुख्यमंत्री ही नहीं थे, वह एक राजनेता से कहीं बढ़कर जननायक व दार्शनिक भी थे, जिनकी तब की सोच पर आज प्रदेश चल रहा है। कृषि-बागवानी से लेकर वानिकी के विस्तार सहित जिन प्राकृतिक संसाधनों पर आज प्रदेश इतरा रहा है, भविष्य का यह दर्शन उन्हीं का था। वह कहा करते थे कि सड़के पहाड़ो की भाग्य रेखाएं है और आज यही प्रदेश की आर्थिकी की रीढ़ है। शिक्षा एवं स्वास्थ्य को लेकर उनका स्पष्ट विजन था, जिस पर उनके बाद की सरकारों ने पूरा ध्यान दिया, जबकि औद्योगिकीकरण के साथ विकास की रफ्तार पर भी वह चल पड़े थे। इसी तरह पशुपालन से समृद्धि की राह भी वह देखा करते थे, जिसके लिए उनके समय प्रयास भी हुए और पहाड़ो की लोक सभ्यता व संस्कृति के तो वह साक्षात उदाहरण थे, जिसके लिए उन्होंने कार्य ही नहीं किए बल्कि वैसा ही पारंपरिक व सादगी का जीवन व्यतीत भी किया। यशवंत सिंह परमार की ईमानदारी व पाक राजनीतिक जीवन का इससे बड़ा प्रमाण नहीं होगा, कि अपने अंतिम समय मे भी उनके बैंक खाते मे 563 रुपये 30 पैसे थे। मुख्यमंत्री बनने के बाद भी उन्होंने कोई मकान नहीं बनवाया, कोई वाहन नहीं खरीदा, अपने परिवार के किसी व्यक्ति या रिश्तेदार को प्रभाव से नौकरी नहीं लगवाया और जब वह मुख्यमंत्री नहीं थे तो सामान्य बस मे सफर करते थे। पर्यावरण की जिस चिंता में आज देश-प्रदेश ही नहीं पूरा विश्व डूबा है, उस कर्मयोद्धा ने इसकी आहट को दशको पहले ही सुन लिया था। एक भाषण में उन्होंने कहा था वन हमारी बहुत बड़ी संपदा है, सरमाया है। इनकी हिफाजत हर हिमाचली को हर हाल मे करनी है, नंगे पहाड़ो को हमें हरियाली की चादर ओढ़ाने का संकल्प लेना होगा। प्रत्येक व्यक्ति को एक पौधा लगाना होगा और पौधे ऐसे हो जो पशुओं को चारा दे, उनसे बालन मिले और बड़े होकर इमारती लकड़ी के साथ आमदनी भी दे। एक मंत्र और सुन ले केवल पौधा लगाने से कुछ नहीं होगा, उसे पालना व संभालना होगा। वनों के त्रिस्तरीय उपयोग को लेकर परमार का कहना था कि कतारो मे लगाए इमारती लकड़ी के जंगल प्रदेश के फिक्स डिपोजिट होगे। बाग-बगीचे लगाकर हम तो संपन्न हो सकते है, लेकिन वानिकी से पूरा प्रदेश संपन्न होगा। वह राजनीति में पारदर्शिता के उदाहरण व प्रदेश में कृषि-बागवानी के प्रबल समर्थक थे मुख्यमंत्री त्यागने के बाद भी उनकी सादगी देखते ही बनती थी। वह कहते थे मेरा सपना हिमाचल को पूर्ण राज्य बनाना था, अब भले ही मै  मुख्यमंत्री नही तो क्या एक साधारण नागरिक ही बनकर रहना चाहता हूं। डॉ. परमार प्रदेश को कृषि-बागवानी में सिरमौर और पहाड़ो को इससे भी हरा-भरा बनाना चाहते थे, जिसके लिए उन्होंने नौणी मे इन्हीं विषय का विश्वविद्यालय भी स्थापित करवाया। अपने भाषण में उन्होंने लोगों को खेती-बाड़ी के साथ वानिकी की ओर भी ध्यान देने को कहा और उस समय जनसंपर्क विभाग के निदेशक रहे चतर सिंह की ओर देखते हुए कहा कि इलाके में जितने भी कैथ के पेड़ है, सब पर नाशपाती की कलम लगा दो। परमार तब भी और आज भी प्रत्येक प्रदेशवासी के लिए आदर्श है। बतौर राजनेता एवं मुख्यमंत्री हिमाचल की जो नींव रखी, बाद की सभी सरकारों ने उसे सीचने का कार्य किया और उनकी सोच की विरासत पर चलकर ही आज यह पहाड़ी प्रांत देश-दुनिया में पहाड़ी राज्यों का मॉडल बनकर उभरा है। परमार ने हिमाचल में विकास का जो मॉडल तैयार किया था, कांग्रेस हो या भाजपा दोनों सरकारों ने उसे अपनाकर, उसी के इर्द-गिर्द कार्य किया और परिणाम स्वरूप राज्य नित नए आयाम स्थापित कर रहा है। देश में अंग्रेजों की गुलामी और पहाड़ो मे रजवाड़ा शाही के दौर में यहां की सिरमौर रियासत मे महाराज के वरिष्ठ सचिव शिवानंद सिंह भंडारी के घर चार अगस्त 1906 को एक बालक का जन्म होता है, जिसका नाम रखा गया यशवंत सिंह। स्थानीय स्कूल में प्रारंभिक शिक्षा ग्रहण करने के बाद नाहन से दसवीं की और फिर बीए के लिए लाहौर चले गए, जिसके बाद उन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय से एलएलबी की डिग्री हासिल की। यहां से उन्होने डॉक्टरेट की और 'द सोशल एंड इकोनॉमिक बैकग्राउंड ऑफ द हिमालयन पॉलिएड्री विषय पर किताब लिखी, जो काफी चर्चा मे रही और आलोचना भी हुई। शिक्षा पूर्ण करने के बाद डॉ. यशवंत सिंह परमार वापस सिरमौर आ गए, जहां उन्हे रियासत का न्यायाधीश नियुक्त किया गया। वह स्वच्छ व ईमानदार व्यक्तित्व थे तो दरबार के कई अधिकारियों को उनकी न्यायसंगत व पारदर्शी छवि भी नहीं रही थी और राजा के पास चुगलबाजी शुरू हो गई। बाद में अपने एक फैसले के कारण उन्हें न्यायाधीश के पद से इस्तीफा देना पड़ा और फिर कामकाज के लिए वह अपने भाई के साथ लाहौर चले गए। लेकिन परमार की बुद्धिजीवी दार्शनिक प्रकृति और सामान्य जनमानस के लिए उनकी गहरी टीस, उन्हें टिकने नहीं दे रही थी। यह वह समय था जब देश में आजादी का सपना देशवासियों का ध्येय बन गया था और यशवंत का युवा मन भी स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए लालायित हो उठा। दूसरी तरफ उन्हे पहाड़ व पहाडि़यो से अगाध प्रेम था, जिसने उच्च शिक्षित होने के बावजूद परमार को नौकरी व व्यवसाय में नहीं पड़ने दिया और वह आजादी के मतवालों के संपर्क में आ गए। इस बीच पहाड़ों में भी स्वतंत्रता संग्राम जोर पकड़ चुका था, यहां के क्रांतिकारी अंग्रेजों से मिल चुके या उनके अधीन राजाओ से जूझ रहे थे, जिसका परिणाम सन 1939 को शिमला के पास धामी गोली कांड के रूप में निकला। इसी वर्ष लुधियाना में अखिल भारतीय स्तर पर रियासतों के प्रतिनिधियों का एक सम्मेलन हुआ, जिसमें राजसता  के खिलाफ व आजादी के लिए प्रजामंडल की स्थापना की गई और शिमला हिल स्टेट्स प्रजा मंडल का भी गठन हुआ। परमार इसमें सक्रिय रूप से शामिल हो गए, उन्होने यहां आकर पहाड़ी रियासतो का दौरा कर स्वाधीनता के साथियों को एकत्र करना शुरू किया। इस दौरान सिरमौर में 1943 का पझौता आंदोलन भी, जिसमे पहाड़ी स्वतंत्रता सेनानियों ने अपनी आवाज मुखर की, जुल्म सहे और गिरफ्तारियां दी।

                                                                                 

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पहाड़ी रियासतों को मिला कर बनाया हिमाचल 

लिहाजा सालो बहता रहा हजारो-लाखो देशवासियो का रक्त और आंदोलनकारियों की सहनशक्ति रंग लाई, 15 अगस्त 1947 को भारत आजाद हो गया, लेकिन पहाड़ो मे रियासते फिर भी कायम रही। डॉ. परमार पहाड़ी लोगों की हालत जानते थे तो उन्हे देश के आजादी से ही तसल्ली नहीं मिली, वह तो पहाड़ो व पहाड़ियों को स्वतंत्र एवं स्वच्छंद देखना चाहते थे। 25 जनवरी, 1948 को शिमला के गंज बाजार में प्रजामंडल का विशाल सम्मेलन हुआ, जिसमें यशवंत सिंह की मुख्य भूमिका रही और यहां से प्रस्ताव पारित हुआ कि पहाड़ी क्षेत्रों में रियासतो का वजूद नहीं रहना चाहिए। सभी पहाड़ी रियासतों का आजाद देश में विलय करके इसे अलग प्रांत बनाया जाए और उसकी शक्ति आम जनता के हाथो मे हो। दूसरी तरफ यहां के कुछ नेताओं व राज परिवारों का एक सम्मेलन 28 जनवरी को सोलन में भी हुआ, जिसमें पर्वतीय इलाकों को रियासती मंडल बनाने का प्रस्ताव पारित कर इसे 'हिमाचल' का नाम अनुमोदित किया गया। बाद में शिमला हिल स्टेट्स प्रजा मंडल का प्रतिनिधिमंडल तत्कालीन गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल से मिला और वहां की स्थिति से अवगत करवाकर पहाड़ी रियासतों के आजाद भारत में विलय की नई रणनीति तैयार की गई। 18 फरवरी, 1948 को सुकेत रियासत में प्रजामंडल का निर्णायक आंदोलन हुआ, आंदोलनकारियों ने यहां कब्जा जमा लिया और पहाड़ी रियासतों से आजादी की जंग को दिल्ली दरबार तक व देश के कोने-कोने में पहुंचाने के लिए डॉ. परमार शिमला में डट गए, जहां से वह अखबारो को सूचनाएं देने लगे। सुकेत के राजा व यहां के अन्य शासको ने भयभीत होकर भारत सरकार से गुहार लगाई, जहां से भी उन्हे विलय का स्पष्ट फरमान सुनने को मिला और पहाड़ी शासको ने स्थिति की गंभीरता को देखते हुए प्रजातंत्र को स्वीकार कर लिया। 15 अप्रैल, 1948 को 30 पहाड़ी रियासतो को मिलाकर हिमाचल का गठन हुआ, जिसे चीफ कमिश्नर का दर्जा दिया गया और लोग झूम उठे, लेकिन हिम के आंचल में बसे क्षेत्रों को हिमाचल तक पहुंचाने वाला अभी भी जद्दोजहद मे लगा था।

 

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1970 को दिलाया पूर्ण राज्य का दर्जा

डॉ. वाईएस परमार हिमाचल को पूर्ण राज्य बनाना चाहते थे, जिसके लिए अब वह अपने साथियों के साथ मिलकर राजनीतिक संघर्ष में जुट गए और परिणाम स्वरूप सन 1952 में प्रदेश का पहला चुनाव हुआ, जिसमें हिमाचल निर्माता यहां के प्रथम मुख्यमंत्री बने। बाद में फिर से दो बार टेरिटोरियल काउंसिल के चुनाव हुए, लेकिन परमार ने इसमें भाग नहीं लिया, वह प्रदेश की अपनी सरकार की लड़ाई में जुटे रहे और जीत भी हुई, जिसके बाद उन्हे दोबारा मुख्यमंत्री बनाया गया। उनके नेहरू परिवार से अच्छे संबंध थे और पड़ोसी राज्यों के नेताओं में मान्यता भी, जिस कारण उनकी राजनीतिक व कूटनीतिक रणनीति की वजह से नवंबर 1966 में पंजाब के पहाड़ी क्षेत्रों को मिलाकर विशाल हिमाचल का गठन हुआ। सन 1967 में डॉ. यशवंत तीसरी बार मुख्यमंत्री बने, वह तब भी नहीं ठहरे और अपनो के प्रति निष्ठा के कारण प्रदेश को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलवाने के प्रयास में लगे रहे। 25 जनवरी, 1971 को उनकी मेहनत रंग लाई व तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने भारी बर्फबारी के बीच स्वयं यहां आकर शिमला के रिज मैदान से हिमाचल को पूर्ण राज्य का दर्जा प्रदान करने की घोषणा की। इसके बाद वह अपने सभी क्षमताओ के साथ राज्य के समग्र विकास में लग गए, जिनका सपना था कि यह प्रांत संपन्न हो-सुदृढ़ हो और पहाड़ी लोग देश के विकास में नई इबारत लिखे। आज उनके इस सपने को पंख तो लग रहे है लेकिन उसकी परवाज देखने के लिए वह युग प्रवर्तक नहीं रहे, प्रदेश की माटी के इस लाल ने दो मई 1981 को अपनी अंतिम सांस ली।

 

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डॉक्टर परमार के जीवन से जुड़ी कुछ अहम घटनाएं

वो 28 जनवरी 1977 का दिन था, प्रदेश निर्माता डॉ यशवंत सिंह परमार बतौर मुख्यमंत्री अपना त्यागपत्र दे चुके थे। जो शख्स चंद मिनटों पहले मुख्यमंत्री था, जिसने हिमाचल के निर्माण में अमिट योगदान दिया था या यूँ कहे जिसकी वजह से हिमाचल का गठन संभव हो पाया था, वो यशवंत सिंह परमार शिमला बस स्टैंड पहुँच, वहां खड़ी सिरमौर जाने वाली एचआरटीसी की बस में बैठे, टिकट लिया और अपने गांव बागथन के लिए रवाना हो गए। इस्तीफा देकर बस से वापस घर लौटने वाला सीएम, शायद ही हिन्दुस्तान में दूसरा कोई होगा। डॉ  यशवंत सिंह परमार की ईमानदारी का इससे बड़ा प्रमाण क्या होगा, कि उनके अंतिम समय में उनके बैंक खाते में महज  563 रुपये और 30 पैसे थे। प्रदेश निर्माण करने वाले मुख्यमंत्री ने न तो खुद के लिए कोई मकान नहीं बनवाया, न कोई वाहन  खरीदा और न ही अपने पद और ताकत का गलत इस्तेमाल कर अपने परिवार के किसी व्यक्ति या रिश्तेदार की नौकरी लगवाई।

 

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जज की नौकरी त्यागी और प्रजामण्डल आंदोलन में हुए शामिल 

रजवाड़ा शाही के दौर में सिरमौर रियासत के राजा के वरिष्ठ सचिव हुआ करते थे शिवानंद सिंह भंडारी। भंडारी के घर चार अगस्त 1906 को एक बालक का जन्म हुआ, जिसका नाम खुद राजा द्वारा यशवंत सिंह रखा गया।बचपन से ही यशवंत पढ़ाई में तेज थे। प्रारंभिक शिक्षा ग्रहण करने के बाद यशवंत न नाहन से दसवी पास की और फिर बीए करने लाहौर चले गए। इसके बाद उन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय से एलएलबी की डिग्री हासिल की।साथ ही डॉक्ट्रेट भी की। डॉक्ट्रेट का विषय था  'द सोशल एंड इकोनॉमिक बैक ग्राउंड ऑफ द हिमालयन पॉलिएड्री यानी बहु पति प्रथा। खेर, शिक्षा पूर्ण करने के बाद  परमार वापस अपने गृह क्षेत्र सिरमौर आ गए, जहां उन्हें सिरमौर रियासत में बतौर न्यायाधीश नियुक्त किया गया। ये वो दौर था जब ब्रिटिश हुकूमत के दिन ढलने लगे थे और आज़ादी का आंदोलन प्रखर हो रहा था। परमार भी आजादी के मतवालों के संपर्क में आ गए। इस दौरान शिमला हिल स्टेट्स प्रजा मंडल का भी गठन हुआ, जिसमें परमार भी सक्रिय रूप से शामिल हो गए। आखिरकार 15 अगस्त 1947 को हिंदुस्तान स्वतंत्र हो गया, किन्तु  पहाड़ी रियासतों का हिंदुस्तान में विलय नहीं हुआ। 25 जनवरी, 1948 को शिमला के गंज बाजार मे प्रजामंडल का विशाल सम्मेलन हुआ, जिसमें यशवंत सिंह की मुख्य भूमिका रही। इस सम्मेलन में प्रस्ताव पारित हुआ कि पहाड़ी क्षेत्रों मे रियासतों का वजूद समाप्त कर सभी रियासतों का विलय भारत में होना चाहिए। 

 

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इसलिए कहलाते है प्रदेश निर्माता 

इसके बाद 28  जनवरी 1948  को सोलन के दरबार हॉल में 28 रियासतों के राजाओं की बैठक हुई जिसमें सभी ने पर्वतीय इलाकों को रियासती मंडल बनाने का प्रस्ताव पारित कर इसे 'हिमाचल' का नाम अनुमोदित किया गया। हालांकि डॉ परमार प्रदेश का 'हिमालयन एस्टेट' नाम रखना चाहते थे किन्तु बघाट रियासत राजा दुर्गा सिंह व अन्य कुछ राजा 'हिमाचल' नाम पर अड़ गए, जिसके बाद प्रदेश का नाम हिमाचल प्रदेश रखा गया।  ये नाम पंडित दिवाकर दत्त शास्त्री द्वारा सुझाया गया था।  बैठक के प्रजा मंडल का प्रतिनिधिमंडल तत्कालीन गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल से मिला और आखिरकार पहाड़ी रियासतों का हिंदुस्तान में विलय हुआ। पर डॉ परमार का सपना अभी अधूरा था। डॉ. परमार हिमाचल को पूर्ण राज्य बनाना चाहते थे, जिसके लिए अब वह अपने साथियों के राजनीतिक संघर्ष में जुट गए।  

 

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1977 तक रहे सीएम 

देश के पहले आम चुनाव के साथ ही वर्ष 1952 में प्रदेश का पहला चुनाव हुआ, जिसके बाद डॉ परमार प्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री बने और वर्ष 1977 तक मुख्यमंत्री रहे। इस बीच नवंबर 1966 में पंजाब के पहाड़ी क्षेत्रों का भी हिमाचल में विलय हुआ और वर्तमान हिमाचल का गठन हुआ। आखिरकार 25 जनवरी,1971 का दिन आया और डॉ परमार का स्वप्न पूरा हुआ। तब इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री थी और उस दिन काफी बर्फबारी हो रही थी। इंदिरा गांधी बर्फबारी के बीच शिमला के रिज मैदान पहुंची और हिमाचल को पूर्ण राज्य का दर्जा प्रदान करने की घोषणा की। 

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हिमाचलियों के हितों की रक्षा के लिए लागू की 118 

 

आजकल धारा 118 को लेकर हिमाचल में खूब बवाल मचता रहता  है। धारा 118 डॉ परमार की ही देन है। डॉक्टर परमार से कुछ ऐसे लोग मिले थे, जिन्होंने अपनी जमीन बेच दी थी और बाद में वे उन्हीं लोगों के यहां नौकर बन गए थे। इसके चलते उन्हें डर था कि अन्य राज्यों के धनवान लोग हिमाचल में भूस्वामी बन जाएंगे और हिमाचल प्रदेश के भोले भाले लोग अपनी जमीन खो देंगे। इसलिए 1972 में हिमाचल प्रदेश में एक विशेष कानून बनाया गया था ताकि ऐसा न हो। हिमाचल प्रदेश टेनंसी ऐंड लैंड रिफॉर्म्स ऐक्ट 1972 में एक विशेष प्रावधान किया गया ताकि हिमाचलियों के हित सुरक्षित रहें। इस ऐक्ट के 11वें अध्याय ‘कंट्रोल ऑन ट्रांसफर ऑफ लैंड’ में आने वाली धारा 118 के तहत ‘गैर-कृषकों को जमीन हस्तांतरित करने पर रोक’ है। 

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संजय गांधी की राजनीति में फिट नहीं बैठे डॉ परमार 

डॉ यशवंत सिंह परमार प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी के करीबी थे। किन्तु कहा जाता है संजय गाँधी की राजनीति में वे फिट नहीं बैठे। वहीं इमरजेंसी के दौरान ठाकुर रामलाल संजय के करीब हो गए, ऐसा इसलिए भी था क्यों कि संजय के नसबंदी अभियान में ठाकुर रामलाल ने बढ़चढ़ कर योगदान दिया था। इमरजेंसी हटने के बाद ठाकुर रामलाल ने अपने समर्थक विधायकों की परेड दिल्ली दरबार में करवा दी। इसके बाद डॉ परमार भी समझ गए कि अब बतौर मुख्यमंत्री उनका सफर समाप्त हो चुका है और उन्होंने इस्तीफा दे दिया।