पझौता घाटी के पैण गांव से चूड़धार गई शिरगुल महाराज की जातर

पझौता घाटी के पैण गांव से चूड़धार गई शिरगुल महाराज की जातर

चूड़धार में पारंपरिक देव स्नान के लिए तीसरे वर्ष चूड़धार जाती है जातर

चूड़धार की प्राचीन बावड़ी मे करवाया जाता है शिरगुल महाराज की मूर्ति का पारंपरिक स्नान

यंगवार्ता न्यूज़ - राजगढ़ 19-09-2021

हिमाचल प्रदेश को देवभूमि के नाम से जाना जाता है यहा हर गांव में किसी ना किसी देवी देवता का मंदिर अवश्य ही दिखने को मिल जाता है जिसे कुल देवता , ग्राम देवता या किसी अन्य नाम से पुकारा जाता है।

अलग अलग गांव में अलग अलग देवी या देवता के मंदिर बने है और हर मंदिर का अपना अलग इतिहास एवं परंपरा है।

स्थानीय लोग इन परंपराओं का निर्वहन आज भी करते है और यहा लोगों की अपने कुल देवता या ग्राम देवता के प्रति गहरी आस्था एवं श्रदा है इसी कडी मे पझौता घाटी के पैण गांव से शिरगुल महाराज की जातर हर तीसरे वर्ष चूड़धार जाती है जिसमे सभी ग्रामीण जो शिरगुल महाराज को अपना कुल देवता या ग्राम देवता मानते है शामिल होते है।

इस जातर में देवता महाराज की मूर्ति को पालकी में बिठा कर पारंपरिक वाद्य यंत्रो के साथ पैदल चुडधार ले जाया जाता है स्थानीय निवासी वीरेंद्र ठाकुर के अनुसार पहले रात्रि को  यह जातर भैरोग नामक स्थान पर विश्राम करती है और दूसरे दिन सुबह चूड़धार के लिए निकलती है।

दूसरी रात्रि को चूड़धार में विश्राम करने के बाद तीसरे दिन चूड़धार में पारंपरिक देव स्नान के बाद जातर वापस लौटती है और तीसरे रात्रि को भी जातर जंगल में ही विश्राम करती है।

चौथे दिन सुबह पुन जातर की यात्रा पैण गांव के लिए आरंभ होती है और पैण गांव से कुछ दूरी पर धार नामक स्थान पर शिरगुल महाराज की औडी है उस स्थान पर जातर विश्राम के लिए रुकती है और वहां स्थानीय भाषा मे लिंबर गायन होता है।

लिबर गायन में शिरगुल महाराज का मुगल शासकों से युद्ध करने के लिए दिल्ली जाना व चुडिया दानव का उनके पीछे चूड़धार पर आक्रमण करना व शिरगुल महाराज के सेवक चूडू द्वारा आक्रमण का संदेश एक पत्थर के माध्यम से शिरगुल महाराज को दिल्ली भेजना व संदेश पढकर शिरगुल महाराज का वापिस आकर चुडिया दानव का अंत करने का वर्णन मिलता है।

यहा आज भी जातर के वापस आने पर स्थानीय लोगों द्वारा इस लिबर का पहाड़ी भाषा में गायन किया जाता है जिसके बाद जातर पैण गांव पहुंचती है और शिरगुल महाराज की मूर्ति को सभी परंपरा का निर्वहन करते हुए मंदिर में पुनः स्थापित किया जाता है।