हिमाचल की राजनीति में लोगों ने सरकार बदलने का कायम रखा रिवाज  

हिमाचल की राजनीति में लोगों ने सरकार बदलने का रिवाज इस बार भी कायम रखा। हालांकि, कांग्रेस के पहली कैबिनेट में ओल्ड पेंशन स्कीम (ओपीएस) देने के वायदे का जादू तो चल गया लेकिन प्रदेश में इस बार नई सरकार के सिर कांटों का ताज होगा

हिमाचल की राजनीति में लोगों ने सरकार बदलने का कायम रखा रिवाज  

यंगवार्ता न्यूज़ - शिमला      09-12-2022

हिमाचल की राजनीति में लोगों ने सरकार बदलने का रिवाज इस बार भी कायम रखा। हालांकि, कांग्रेस के पहली कैबिनेट में ओल्ड पेंशन स्कीम (ओपीएस) देने के वायदे का जादू तो चल गया लेकिन प्रदेश में इस बार नई सरकार के सिर कांटों का ताज होगा। प्रदेश पर करीब 70 हजार करोड़ रुपये का कर्ज चढ़ा हुआ है। 

सरकार को काम आगे बढ़ाने के लिए बार-बार कर्ज की दरकार होती है। ओपीएस के अलावा एक लाख रोजगार, 300 यूनिट फ्री बिजली, महिलाओं को 1,500 रुपये प्रतिमाह देने सहित अन्य घोषणाओं को पूरा करने में सरकार को और हजारों करोड़ रुपये सालाना चाहिए होंगे। 

सरकार अब सिंगल इंजन की होगी तो केंद्र की भाजपा सरकार से विशेष मदद मिले बिना घोषणाओं को कैसे पूरा किया जाएगा? यह एक बड़ा सवाल है। वित्तीय व्यवस्था करना कांग्रेस के नए मुख्यमंत्री के लिए चुनौतीपूर्ण होगा। हालात यह तक बन सकते हैं कि वर्तमान कर्मचारियों के वेतन व अन्य जरूरी खर्च को लेकर सरकार बेबस हो सकती है।    

हिमाचल में कांग्रेस के छह बार के मुख्यमंत्री रहे वीरभद्र सिंह के बिना यह पहला चुनाव था। हिमाचल का रिवाज हर बार सरकार बदल देने का है लेकिन वीरभद्र व मुख्यमंत्री के चेहरे के बिना कांग्रेस के लिए यह आसान नहीं था। कर्मचारियों की नाराजगी को पढ़ने में भाजपा की केंद्र व प्रदेश की जयराम सरकार असफल रही। इसे ही कांग्रेस ने चुनाव जीतने का महत्वपूर्ण हथियार बना लिया। 

वर्तमान सरकारी कर्मचारी व ओल्ड पेंशनर की करीब चार लाख से अधिक की संख्या है। प्रदेश में औसतन हर दूसरा घर इस मुद्दे से सीधा जुड़ा हुआ है। पूर्व में ओपीएस पर सरकारी कर्मचारियों के आंदोलन के बीच मुख्यमंत्री जयराम का विधानसभा में बोलना कि पेंशन लेनी है तो चुनाव लड़कर कर्मचारी विधानसभा में आ जाएं, ने आग में घी डालने का काम किया था।

विधानसभा चुनाव में भाजपा का फोकस रिवाज बदलने को लेकर ज्यादा था, इसलिए उसने कांग्रेस के उठाए मुद्दों को काउंटर नहीं किया। हिमाचल से ही भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा व केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर ने चुनाव में लंबा प्रवास प्रदेश में करते हुए हर सीट के लिए रात-दिन काम किया लेकिन उनकी रणनीति व जादू नहीं चल सका। 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रैलियां भी जनता के मूड में बदलाव नहीं कर सकीं। हालांकि, चंबा व मंडी जिलों में सर्वाधिक सीटें मिलने का कारण वहां पर मोदी की रैलियों को माना जा रहा है। टिकट वितरण को लेकर भाजपा नेताओं की नाराजगी व बिगड़े समीकरण भी हार की वजह माने जा रहे हैं। 

इस चुनाव में 21 सीटों पर भाजपा के बागी ही पार्टी के अधिकारिक प्रत्याशी की जीत में बाधा बने हुए थे। कुछ जगह तो भाजपा को इसका नुकसान भी हुआ। सरकार में नंबर एक के मंत्री सुरेश भारद्वाज की सीट बदलने के बाद कांग्रेस ने अपनी मजबूत सीट शिमला शहरी भी खो दी और भारद्वाज कसुम्पटी से भी हार गए। इसी तरह कुल्लू में भाजपा के पूर्व सांसद महेश्वर सिंह का टिकट न कटने पर वह जीत सकते थे। 

नालागढ़ व देहरा से भी भाजपा के टिकट कटने पर निर्दलीय के रूप में खड़े प्रत्याशी जीत गए। इसी तरह से करीब आधा दर्जन सीटों से अधिक स्थानों पर भाजपा की सीट गुटबाजी में फंस गई। ऐसे में इन आठ से दस सीटों पर बागी समीकरण नहीं बिगाड़ते और यह सीटें भाजपा के पक्ष में जातीं तो दृश्य कुछ और होता।