प्राचीन लोक संस्कृति व परंपरा का परिचायक है दियाली पर्व , जानिए क्यों और कब से मनाया जाता है त्योहार
सिरमौर जनपद की सदियों पुरानी लोक संस्कृति व परंपरा के संरक्षण के लिए मशहूर गिरिपार क्षेत्र में यूं तो बुधवार को अमावस्या से साल का सबसे अहम त्योहार बूढ़ी दियाली ( दिवाली ) शुरू हो गया था, मगर मशाल यात्रा, राक्षसराज राजा बलि के जयघोष व उनके 99 अश्वमेध यज्ञ की स्मृति में विशाल बलिराज ( बड़ा राज ) जलाए जाने की महत्वपूर्ण परंपरा गुरुवार सुबह 4 बजे निभाई गई।
होजुरा जयघोष व मशाल यात्रा से गिरिपार में बूढ़ी दियाली शुरू
99 अश्वमेध यज्ञ करने वाले दानवीर बलि राजा की स्मृति में जलाया जाता है विशाल बलिराज
अवांस, भींवरी, तीज व चौथ आदि नाम से सप्ताह भर चलना है फेस्टिवल
यंगवार्ता न्यूज़ - संगड़ाह 25-11-2022
सिरमौर जनपद की सदियों पुरानी लोक संस्कृति व परंपरा के संरक्षण के लिए मशहूर गिरिपार क्षेत्र में यूं तो बुधवार को अमावस्या से साल का सबसे अहम त्योहार बूढ़ी दियाली ( दिवाली ) शुरू हो गया था, मगर मशाल यात्रा, राक्षसराज राजा बलि के जयघोष व उनके 99 अश्वमेध यज्ञ की स्मृति में विशाल बलिराज ( बड़ा राज ) जलाए जाने की महत्वपूर्ण परंपरा गुरुवार सुबह 4 बजे निभाई गई।
इस दौरान कुल देवताओं के जयघोष व होजुरा नारे लगाए जाते है। शिलाई हल्के के लगभग सभी बड़े गांवों में जहां बूढ़ी दियाली मशाल यात्रा के साथ मनाई जाती है, वहीं उपमंडल संगड़ाह के भराड़ी, चोकर व रजाणा आदि गांव में इस दौरान मशराली के नाम से सांस्कृतिक संध्याओं का दौर चलता है।
हिंदी में बोलचाल के दौरान हांलांकि दियाली पर्व को बूढ़ी दिवाली कहा जाता है, मगर वास्तव में अवांस , भियुरी, तीज व चौथ आदि नामों से सप्ताह भर चलने वाले इस त्योहार में न तो दीपक जलाए जाते हैं और न ही माता लक्ष्मी का पूजन होता है।
बूढ़ी दियाली को लेकर हालांकि किसी सिरमौर साहित्यकार अथवा शोधकर्ताओं द्वारा अब तक संतोषजनक अथवा वैज्ञानिक खोज किया जाना शेष है, मगर गिरिपार के लोक संस्कृति प्रेमी व बुजुर्ग इसका संबंध दानवीर राक्षस राज बली द्वारा 99 अश्वमेध यज्ञ व वामन अवतार को 3 पग भूमि दान तथा उनके पाताल जाने से मानते हैं।
त्यौहार में अश्वमेध यज्ञ की स्मृति में विशाल बड़ा राज जलाए जाने तथा बली राजा का जयघोष इसे साबित करता है। भगवान विष्णु द्वारा भक्त प्रल्हाद के वंशज राजा बली को पाताल पंहुचाएं जाने के बाद अपने वरदान के चलते जब वह खुद भी पाताल में उन्हीं के साथ रहने लगे तो मां लक्ष्मी ने राजा को रक्षा सूत्र बांध भाई बनाया और फिर उनसे भगवान विष्णु अथवा अपने पति को मांगा।
इस दौरान राजा बलि के कहने पर कुछ दिन उन दोनों के पाताल में बतौर मेहमान रहने का जिक्र भी कथा में आता है और दियाली के दौरान भी सप्ताह भर मेहमानों को मूड़ा, शाकुली, तेल पाकी, पटांडे, अस्कली व सीड़ो आदि पारम्परिक व्यंजन परोसे जाते हैं।
मीडिया व सोशल मीडिया पर इस बारे खबर अथवा स्टोर मे रोचकता पैदा करने के लिए हालांकि कुछ लोग गिरिपार के लोगों को भगवान राम के लौटने की सूचना एक माह बाद मिलने व पांडवों के अज्ञातवास से लौटने की बात का भी कईं बार जिक्र करते हैं, मगर लोक साहित्य में रुचि रखते वाले लोग व क्षेत्र के बुजुर्ग स्थानीय बोली में बली राजा अथवा बड़ा राज कहलाने वाले दानवीर राजा बली से ही इसका संबंध मानते हैं।
गिरिपार में न केवल बूढ़ी दियाली बल्कि माघी त्योहार, गूगा नवमी, दूज व ऋषि पंचमी आदि त्योहार भी शेष हिंदोस्तान से अलग अंदाज में मनाए जाते हैं।
क्यों और कब से मनाई जाती है दियाली
गिरिपार समेत उत्तराखंड और कुल्लू के निरमंड में बूढ़ी दिवाली सतयुग से मनाई जाती है , जबकि दीपावली पर्व त्रेतायुग मनाई जाती है। जानकारी के मुताबिक त्रेतायुग में जब भगवान विष्णु ने वामन अवतार धारण कर राजा बलि से तीन पग धरती दान मांगी थी तो राजा बलि को पाताल भेज दिया।
स समय विष्णु भगवान ने राजा बलि की वर दिया था कि जब तक यह सृष्टि रहेगी तब तक धरती पर राजा बलि के नाम से दिवाली मनाई जाएगी उसी उपलक्ष्य में बूढ़ी दियाली को हर ग्राम में बड़ा राज अथवा बलि राज जलाया जाता है।