बदलते वातावरण में ग्रीन हाउस गैसों ने बढ़ाई चिंता, वर्ष2052 तक स्थिति होगी भयावह
यंगवार्ता न्यूज़ - देहरादून 16-09-2020
जीवाश्म ईधन, औद्योगिक प्रक्रियाओं और शहरीकरण के चलते ग्रीन हाउस गैसें (कार्बन डाईऑक्साइड, मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड, हैलोकार्बन व जलवाष्प आदि) जलवायु परिवर्तन का कारण हैं। इनके चलते वायुमंडल का तापमान लगातार बढ़ता जा रहा है।
कोविड-19 के चलते देश में हुई तालाबंदी से यह साबित हो गया है कि पृथ्वी पर बढ़ते तापमान एवं उससे वातावरण में होने वाले बदलाव में ग्रीन हाउस गैसों की भूमिका अहम् है, जो कि पूरी तरह से मानव जनित है।
जैव प्रौद्योगिकी परिषद के वैज्ञानिक डॉ. मणिंद्र मोहन के अनुसार कोविड-19 के चलते वैश्विक स्तर पर 0.5 से 2.2 प्रतिशत तक हानिकारक गैसों के उत्सर्जन में कमी आई है।
आंकड़ों के अनुसार एशिया में चीन कार्बन डाईऑक्साइड का सबसे अधिक उत्सर्जन करने वाला देश है, जो वैश्विक स्तर पर अन्य देशों की तुलना में 30 प्रतिशत कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन अकेले करता है।
बीते 10 वर्षों में वैश्विक स्तर पर जीवाश्म ईंधन के जलने तथा औद्योगिक प्रक्रियाओं के कारण कार्बन डाईऑक्साइड के उत्सर्जन में 4,578.35 मिलियन मीट्रिक टन की वृद्धि हुई है। भारत में बीस क्यूविक मीटर बोतलबंद जल को बनाने में करीब 4,280 किग्रा. कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन होता है। यह ग्रीन हाउस गैसों का एक प्रमुख घटक है।
आईपीसीसी की रिपोर्ट के अनुसार यदि धरती पर तापमान बढ़ने का यही सिलसिला रहा तो वर्ष 2052 तक धरती के तापमान में 1.5 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो जाएगी जो पृथ्वी के पर्यावरण को प्रभावित करेगी। वायुमंडल में मौजूद ग्रीन हाउस गैसें सांस के माध्यम से सीधे मानव शरीर में प्रवेश करके विभिन्न वायुजनित बीमारियों को न्योता देती हैं।
शोधकर्ताओं के अनुसार यातायात में प्रयुक्त वाहनों और उद्योगों से निकलने वाले कॉर्बन डाईऑक्साइड से पादप व फफूंदी के पराग तथा बीजाणु के उत्पादन को बढ़ावा मिलता है। यह हवा के माध्यम से मानव शरीर में पहुंच कर अस्थमा, राइनाइटिस तथा सीओपीडी, स्किन कैंसर एवं अन्य एलर्जी जैसे घातक बीमारियों को बढ़ावा देते है।
ग्रीन हाउस गैसों का पृथ्वी पर एक उचित व नियंत्रित मात्रा में होना लाभदायक है। लेकिन इनकी अधिकता मानव जीवन के साथ पर्यावरण पर भी दुष्प्रभाव डाल रही है।