उत्तराखंड के अल्मोड़ा के मूल निवासी थे नोबेल पुरस्कार विजेता रोनाल्ड रॉस : डा. शिवकुमार

उत्तराखंड के अल्मोड़ा के मूल निवासी थे नोबेल पुरस्कार विजेता रोनाल्ड रॉस : डा. शिवकुमार

यंगवार्ता न्यूज़ - देहरादून 17-09-2020

गुरूकुल कांगडी विश्वविद्यालय के असिस्टेंट प्रोफेसर डा. शिवकुमार चौहान ने बताया कि उत्तराखंड का दुनिया में रिसर्च के क्षेत्र मे स्वर्णिम योगदान है। उत्तराखंड के अल्मोडा जनपद मूल निवासी डा. रोनाल्ड रास ने देश-दुनिया को सबसे पहले मलेरिया जैसी घातक बीमारी से मुक्ति देते हुए जीवन रक्षक औषधी तैयार करके विज्ञान के क्षेत्र का सर्वोत्तम नोबेल पुरूस्कार प्राप्त करके उत्तराखंड का मान बढाया है।

चिकित्सा तथा मलेरिया के परजीवी प्लास्मोडियम के जीवन चक्र की खोज करने के लिये सन् 1902 में वह नोबेल पुरस्कार विजेता बने। रोनाल्ड रॉस का जन्म 13 मई, 1857 में भारत के उत्तराखण्ड राज्य के कुमांऊँ क्षेत्र के अल्मोड़ा जिले के एक गाँव में हुआ था।

भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम (1857) के दौरान कई अंग्रेजी शासक मैदानी इलाकों से जान बचाने के लिये कुमांऊँ की पहाड़ियों की ओर चले गये थे। इसी कालचक्र के बीच रोनाल्ड रॉस के पिता सर कैम्पबैल क्लेब्रान्ट रॉस अपनी पत्नी मलिदा चारलोटे एल्डरटन के साथ अल्मोड़ा पहुँच गये थे, इस प्रवास के बीच उनकी पत्नी मलिदा चारलोटे एल्डरटन ने यहॉं पर एक शिशु को जन्म दिया जिसका नाम रोनाल्ड रॉस पड़ा।

डा. रॉस अपने माता-पिता की दस सन्तानों में सबसे बडे थे। रोनाल्ड रॉस को लगभग आठ वर्ष की अवस्था में उनके चाचा-चाची के साथ इंग्लैंड के आइल ऑफ वाइट में भेज दिया गया था, जहॉं पर उन्होंने प्राथमिक शिक्षा ग्रहण की।

तदोपरांत, उनकी माध्यमिक शिक्षा इंग्लैंड के साउथऐम्पटन के निकट स्प्रिंगहिल नामक एक बोर्डिंग स्कूल में हुई। सन् 1880 में स्कूली पढ़ाई के पश्चात पिता के कथनानुसार उन्होंने लंदन के सेंट बर्थेलोम्यू मेडिकल स्कूल में अध्ययन किया।

अध्ययन के पश्चात लगभग 1880-81 के दौरान भारत लौट आये। जन्मभूमि व भारत के प्रति लगाव होने के कारण, वे इंडियन मेडिकल सर्विस की परीक्षा की तैयारी में जुट गये थे। पहली बार असफलता के बाद, अगले वर्ष (सन् 1881) भारत के चौबीस सफल छात्रों में से 17वें सफल छात्र के रूप में उत्तीर्ण हुये।

आर्मी मेडिकल स्कूल में चार महीने ट्रेंनिग के बाद वे इंडियन मेडिकल सर्विस में मद्रास प्रेसिडेंसी (वर्तमान चेन्नई) में उनका चयन हुआ था। चेन्नई में उनका अधिकॉश समय व कार्य मलेरिया पीड़ित सैनिकों का इलाज करना था, जो उनके शौक व समर्पण के अनुरूप था।

कारणवश 1888 में पुन भारत छोड़कर इंग्लैंड चले गये थे, जहॉ रॉयल कॉलेज के सर्जनों तथा प्रोफेसर ईण् लेन के अनुसरण में जीवाणु विज्ञान का गहन अध्ययन किया।

सन् 1889 में फिर भारत लौटने पर सेवा काल के दौरान मलेरिया पर थ्योरी तथा अनुसंधान किया। उनके पास बुखार का जो भी कोई रोगी आता, वे उसका खून का नमूना सुरक्षित कर, घंटों माइक्रोस्कोप के साथ अध्ययन करते रहे।

रोनाल्ड रॉस ने मच्छरों के जठरांत्र सम्बन्धी क्षेत्र में मलेरिया परजीवी प्लास्मोडियम के जीवन चक्र की खोज करके मलेरिया जैसी घातक बीमारी के लिए जीवन रक्षक दवाई का सफल प्रयोग करने मे कामयाबी पाई। जिसके परिणाम स्वरूप आज मलेरिया जैसी घातक बीमारी से रक्षण संभव हो सका।