पंजाब में पंजाबी स्वीकार्य तो पहाड़ में हिमाचली क्यों नहीं, जानिए साहित्यकार की जुबानी 

पंजाब में पंजाबी स्वीकार्य तो पहाड़ में हिमाचली क्यों नहीं, जानिए साहित्यकार की जुबानी 

यंगवार्ता न्यूज़ - धर्मशाला  01-11-2020

भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन के समय 01 नवंबर, 1966 को विशाल हिमाचल बना। उसी दिवस को ऐतिहासिक स्मृति दिवस के रूप में पहली नवंबर को पहाड़ी दिवस के रूप में मनाया जाने लगा। इसी विचार और संकल्प के विकास के लिए 14 अप्रैल, 1971 प्रदेश भाषा, कला एवं संस्कृति अकादमी का गठन और 02 अक्टूबर, 1972 को उद्घाटन हुआ।

इसी क्रम में 'राज्य भाषा संस्थान' की 1972 में भाषा एवं संस्कृति प्रकरण विभाग की स्थापना हुई। अकादमी द्वारा पहाड़ी भाषा में साहित्य सृजन-प्रकाशन को प्रोत्साहन एवं प्रसार देने के लिए हिम भारती पत्रिका आरंभ की गई। उस समय प्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ. यशवंत सिंह परमार और मंत्री लाल चंद प्रार्थी, दोनों भाषा तथा संस्कृति के प्रति संकल्पित रूप से प्रतिबद्ध रहे।

उनके लिए कार्यकाल तक पहाड़ी भाषा के प्रचार - प्रसार, प्रकाशन, प्रोत्साहन के लिए अनके योजनाएं भाषा एवं संस्कृति विभाग तथा अकादमी के माध्यम से कार्यान्वित हुईं।  पुस्तक पांडुलिपियों पर प्रकाशन सहायता अनुदान, थोक खरीद, भाषा-शब्दावली, संकलन योजना, पांडुलिपि पुरस्कार के अतिरिक्त पहाड़ी के लिए शिखर सम्मान योजना 1994-1997 तक निरंतर चली।

राज्य सम्मान योजना केवल एक बार चलकर ही बस कर गई। परंतु अकादमी हिम भारती का प्रकाशन निरंतर कर रही है। यह ध्यातव्य है कि बीच में इसे आधी हिंदी और आधी पहाड़ी में कर दिया गया था। वर्तमान में यह पूर्ण रूप से पहाड़ी-हिमाचली में प्रकाशित हो रही है।

विभाग ने आरंभिक काल में जिस गति से कार्य किया, उसमें धीरे-धीरे शिथिलता दिख रही है।आरंभिक प्रकाशनों में लोक रामायण, माला रे मणके, कथा सरबरी दो भाग, देई जुल्फू, पहाड़ी रचनासार उल्लेखनीय प्रकाशन हुए। उसी तर्ज पर विभाग से निरंतर प्रकाशनों की अपेक्षा हिमाचली-पहाड़ी भाषा के विकास प्रसार के लिए अपेक्षित है।

 पहाड़ी भाषा के प्रति नब्बे में राजनीतिक मंशा ढीली पड़ती गई। तत्पश्चात प्रो. नारायण चंद पराशर के सद्प्रयासों व रुचि के कारण कुछ गति आई परंतु कुछ समय बाद घटती-घटती घट गई। यही कारण रहा कि वर्ष 1997 के बाद किसी भी हिमाचली-पहाड़ी लेखक को शिखर सम्मान नहीं मिला।

और  जयदेव किरण के बाद किसी भी लेखक को राज्य सम्मान से अलंकृत नहीं किया गया। इस राज्य की ओर से मिलने वाले प्रोत्साहन-पहचान के बंद होने से निश्चित रूप से हिमाचली-पहाड़ी भाषा में लिखने वालों में पूर्वकाल जैसा उत्साह न रहना स्वाभाविक है।

मुझे स्मरण है पहले शिक्षा निदेशालय प्रदेश के लेखकों द्वारा प्रकाशित या उनकी पुस्तकों को विद्यालयों, महाविद्यालयों व पुस्तकालयों में खरीदने की स्वीकृति प्रदान की जाती थी जिससे मुख्याध्यापक व प्राचार्य किसी भी लेखक की पुस्तकें खरीद सकते थे। परंतु कालांतर में यह सुविधा बंद हो गई और इसके स्थान पर थोक खरीद योजना शुरू हुई जिसके तहत दिल्ली आदि स्थानों के प्रकाशकों को तो लाभ मिल रहा है परंतु प्रदेश का लेखक वंचित हो गया।

आज भी अनेक लेखकों की अलमारियों में प्रकाशित पुस्तकों को दीमक चाट रही है। अत: प्रदेश भाषा विकास-प्रचार की दृष्टि से सरकार द्वारा हर शिक्षण संस्थान को प्रदेश के लेखक की भाषा एवं संस्कृति पर लिखी पुस्तकें खरीदने के आदेश जारी हों। मेरा सर्वेक्षण इस निष्कर्ष पर पहुंचा है कि जिस गति से पुस्तक प्रकाशन 1990 तक हुआ, कालांतर में यह गति धीमी पड़ती गई। 'पहाड़ी भाषा' में 'पहाड़ी' शब्द 1970 से 1990 तक विवाद का विषय रहा।

जब इसके प्रति किसी प्रकार के निर्णय लेने को सरकारी मंशा बनती तो साहित्यिक गलियारों में ही इसके प्रति विवाद सुबकने लगता-कैसी पहाड़ी? कहां की पहाड़ी? हिमाचल में तो कई पहाड़ी बोलियां हैं किसको प्राथमिकता मिलेगी, कौन वंचित रहेगी, पहाड़ी भाषा कैसे भाषा बन सकती है आदि।

ऐसी सुगबुगाहट मालरोड से सरकती सचिवालय में जब प्रवेश करती तो 'पहाड़ी भाषा' की चर्चा धरी-धराई रह जाती। इसी मुद्दे को लेकर वीरभद्र सिंह के कार्यकाल में हिमाचल भाषा, कला एवं संस्कृति अकादमी की बैठक में मैंने एक विनम्र प्रस्ताव के रूप में रखते हुए कहा कि-'जब पंजाब में अनगिनत बोलियां होने पर, भारत में असंख्य बोलियां व उपभाषाएं होने पर क्रमश: पंजाबी और ङ्क्षहदी (खड़ी बोली स्वीकार्य हो सकती हैं) तो हिमाचल में हिमाचली क्यों नहीं। 

हिमाचली कहने से संपूर्ण हिमाचल का प्रतिनिधित्व मुखर होता है। पहाड़ी कहने से अनेक प्रश्न उठने सहज हैं क्योंकि कश्मीर से लेकर नेपाल-असम सीमा तक पहाड़ी प्रदेश हैं। और वहां की भाषाओं को भी स्थानीयता के आधार पर नहीं बल्कि राज्य के नामकरण के आधार पर भाषा-संज्ञाएं मिली हैं।

उसी बैठक में सभापति महोदय ने तर्क को स्वीकारते और हिमाचल संज्ञा को महत्व देते 'हिमाचली' अर्थात हिमाचली - पहाड़ी भाषा को सार्थक माना। तब से यह प्रचलन निरंतर है।

यहां यह भी दर्ज करना तर्कसंगत लगता है कि देश के दो प्रकाशन संस्थानों नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया और साहित्य अकादमी दिल्ली ने हिमाचल की भाषा को 'हिमाचली-पहाड़ी' मानकर यहां के हिमाचली लेखकों की पुस्तकों का प्रकाशन किया है। इससे बढ़कर और सम्मानीय बात क्या हो सकती है।

साहित्य अकादमी दिल्ली दो बार हिमाचली भाषा एवं संस्कृति में विशेष योगदान देने के लिए संयुक्त रूप से दो बार भाषा सम्मान प्रदान कर चुकी है। कुछ आलोचकों का कहना है कि जब हिमाचली का कोई व्याकरण ही नहीं तो यह भाषा कैसे बन सकती है? उनसे मेरा विनम्र निवेदन है कि साहित्य अकादमी दिल्ली तथा प्रदेश अकादमी शिमला ने हिमाचली व्याकरण का प्रकाशन किया है। हो सकता है आपकी नजर में न आया हो। 

यह विवादित विषय रहा कि यहां तो कोस-कोस पर पानी और बोली बदलती है। यह उस काल की चिंता है जब आवागमन, संचार, जल संसाधनों, शिक्षा प्रसार, मोबाइल, सीडी-एप और यूट्यूब प्रचलन या स्वप्न में नहीं थे। अब तो जैसे संस्कृतियों का संक्रमण हो रहा है।

हमारे रहन-सहन भी इस संक्रमण से प्रभावित हैं, तो भला हमारी बोलियां, भाषाएं कहां तक स्वयं को पृथक रख पाएंगी। अत: अब तो किन्नौर, लाहौल , पांगी, स्पीति, सिरमौर के सीमांत जनजातीय गांवों में अंग्रेजी का स्कूल, हिंदी का संवाद बढ़ता जा रहा है। एक क्षेत्र का लोकगीत अनेक क्षेत्र के लोगों के मुंह पर चढ़कर उन्हें नचा रहा है, इस ग्लोबलाइजेशन के युग में संचार क्रांति के प्रभावों से असंपृक्त रहना कठिन है।

आज तो कुल्लू के मलाणा गांव के बच्चे भी अंग्रेजी-हिंदी में पढऩे लगे हैं। अत: यह हमारे आप की चिंता नहीं है कि कौन सी हिमाचली बोली-हिमाचली भाषा का रूप लेगी। यह समय की गति और प्रगति पर निर्भर है। जिस बोली में से प्रेषणीयता व अभिव्यक्ति की शक्ति होगी, वही हिमाचली भाषा होगी। अंत में हिमाचली-पहाड़ी को संविधान के आठवें शेड्यूल में स्थान पाने या मान्यता पाने का प्रश्न मुद्दा नहीं है। यह पूर्णतया राजनीतिक इच्छा और राजनीतिक प्रभाव का विषय है।

प्रदेश की साहित्यिक संस्थाओं ने इस मुद्दे पर काफी बहस की, प्रयास किए परंतु उनकी आवाज उन्हीं तक सीमित रही। कुछ नहीं बना। परंतु देश की दो-चार ऐसी भाषाएं हैं, जिनके न तो बोलने वालों की संख्या है, न उनमें प्रकाशित साहित्य है, फिर भी वे संविधान की मान्यता प्राप्त भाषाएं हैं-कारण केंद्र में उनका प्रतिनिधित्व सशक्त है।

हम संशय में रहे, राजनीतिक मंशा नहीं बना सके। परंतु हम निराश नहीं आशावान हैं। नई शिक्षा नीति के अंतर्गत प्रदेश की जनभाषाओं को शिक्षा माध्यम बनाने का निर्णय निश्चित रूप से सहायक होगा। हिमाचली भाषा अस्तित्व में है, रहेगी। अत: भविष्य में पहाड़ी दिवस ही हिमाचली दिवस के रूप में मनाया जाएगा।